भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आदमखोर / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आदमखोर


नहीं होते आदमखोर
पौराणिक पात्र
गपोड़े इतिहासकार
या, कवि की
कल्पना की फसल,
उड़न तश्तरियों से
गुपचुप उतरने वाले
या, क्लोन-निषेचित
मानवेतर जीव,
जिन्न, भूत या
जंगली जानवर

नहीं चढ़ा होता
उन पर
वासना-ज्वर
वहशीपन या
खूनी खुमार
--कि देखते ही
  डकार गए
  कुछ निहत्थे समाज
  अधकचरी संस्कृति
  और विकलांग भीड़

नहीं हड़पते
वे पराई नीड़
गोबराए छप्पर तले
पुआली कथरी पर
अलमस्त बबुनियों की
सुख-चैन-नींद

नहीं नज़राते वे
कुम्हारी चक्के
पनिहारिनों के मटके
अलावों के
सोंधे भौरी-भुर्ते
घाटों पर नहाती औरतें
और सूखी गड़हियों में
गुल्ली-डंडा खेलते
उनके अंडे-बच्चे

नहीं छिपाते--बारूद
वे ठिठुरते-पसीजते
पेट-पीठ सटे
राष्ट्र की घुनियाई नींव में,
किलों, चौराहों, सभाओं
और बजते-छपते
इलेक्ट्रानिक डिब्बों से
भेड़ियाई भाषण दे-देकर
क़सम खा-खाकर
गिरती धारा पर
अपना जूठा पानी पिलाते
इल्ज़ाम सहते बेजान मेमनों को,
मौत की फब्तियों से
नहीं हड़काते वे.