आदमी / राम सिंहासन सिंह
जुग-जुगान्तर से धरा पर चल रहलऽ हे आदमी,
रौंदते जल-थल गगन के बढ़ रहल हे आदमी।
सृष्टि पर वर्चस्व अपन हे बढ़ावईत जा रहल,
किन्तु का गंतव्य अपन पा सकल हे आदमी?
आदमी के ज्ञान जेतना ही अधिक हे बढ़ रहल,
गर्व ऊ विज्ञान पर जेतना अधिक ऊ कर रहल।
का न उतने ही अधिक विध्वंस के ऊ पास हे?
चैन के वंसी बजा कब आदमी हे पा रहल?
आदमी के साँप जईसन डस रहल हे आदमी,
सभ्यता के पांकी में ऊ धस रहल हे आदमी।
दास विकृति के बनल अब रो रहल हे आदमी,
संसृति के पास में अब फँस रहल हे आदमी।
आदमी अब कर लेलक हे सीमित समय आऊ दूरियाँ
किन्तु सीमित कर सकल अपन कहाँ मजबूरियाँ
आदमी के बढ़ रहल जितने अधिक मस्तिष्क हेऽ,
का न उनकर ही अधिक अब बढ़ रहल कमजोरियाँ?
आदमी अविराम अपन मूल खोईत जा रहल हे,
आदमीयत से विमुख हो क्रूर होई जा रहल हे।
आऊ अधिक ऊ घिरते नित जा रहल अब पास में,
दिब्य ‘सोऽहम्’ तत्व से ऊ हाँथ धोईत जा रहल हे।
अन्त होवऽ हे जहाँ विज्ञान के इस लोक में,
अपन रूप धरऽहे वही अध्यात्म जुग के कोख में।
मुक्त कलुसित वासनाओं से कहाँ हे आदमी?
आ सकल हे आदमी के दिव्यता के ओक में?
आत्ममंथन के बिना कब आदमी हे आदमी?
त्याग जीवन में न हे तो आदमी का आदमी?
प्रानियों में आदमी के श्रेष्ठता संसिद्ध हे
प्राप्त कर सकऽहे ने का देवत्व अपन आदमी?