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आदमी खुद / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'
Kavita Kosh से
आदमी ख़ुद से डर गया होगा
वहशते-दिल से मर गया होगा
मुझ में इक आदमी भी रहता था
राम जाने किधर गया होगा
कितना ख़ामोश अब समंदर है
ज्वार बदनाम कर गया होगा
मोम पाषाण हो गया आख़िर
प्यार हद से गुज़र गया होगा
आपको अपने सामने पाकर
आइना ख़ुद सँवर गया होगा
उसने इंसानियत से की तौबा
सब्र का जाम भर गया होगा
तुम कहाँ थे पराग अब तक तो
रंगे-महफ़िल उतर गया होगा