आदमी यहीं कहीं है / प्रमोद कौंसवाल
आँख खुलती है
और दिन ताज़गी लिए प्रगट हो जाता है
जैसे बाँसुरी पर रुपक ताल
स्तुति और अध्यात्म का पाठ
इस वक़्त न पढ़ाओ
चौरसिया कह गए
कोई नेत्रहीन कहे नहीं देखी गोधूलि
तो वह बाँसुरी पर रूपक ताल में
सुनाएंगे बिलंबित
राज ने भी बजाई है बाँसुरी
शून्य में जहाँ आदमी
खोया पाता है अपने को आसपास
वह फूँक से निकली और कैनवस पर दिखी
साइकिलें बेंच चटाई दीवारें
कुहासा कौए मोमबत्तियाँ
दरवाज़े खिड़की और देहरी
वास्तुकारों ज़रा यहाँ से हटो
नकार हाशिए से भी बाहर एक आकार है
आपने उसे राजस्थान के क़िलों में गढ़ा
लेकिन राज जैसा आदमी तो क़िले के भीतर
मौजूद है पहले से
उसे देखने के लिए चाहिए
नज़रिया जो देखे
कुछ जोड़कर कुछ घटाकर
जैसे खाली बेंच पर
कोने में आकर कौन बैठ गया
कौन सुनसान दीवारों को
पढ़ने के लिए टिकाए हुए है पीठ
आसपास कभी-कभार लांघ देती हैं
बच्चों की पतंगें
सुरैया गिलसरा परिमल हज़ारा
ख़रबूजा और कृष्णा छाप
इनकी उड़ान है
हमारे सपनों की संवाहक
वंसत आ गया
पीला और हल्क़ा लाल है रंग
शहर इन्हें देख जाग गया
तबला बजाने वाले
युगल वादक
बाहर गली के नुक्कड़ पर आए हैं
जहाँ कहीं भी हो कठपुतलियो
सुनो और नाचो
ब्रह्ममांड की व्युत्पति ही नहीं
एक ऐसा शून्य और ख़ालीपन है जिसमें आप
आकार गढ़ सकते हैं
आदमी औरत पशु
और मनुष्य जगत की
सारी की सारी विज़ुअल रियलिटी
हेनरी मातम ने दी है
लाइनों की आज़ादी
और रंगों का मेल
काँच के टुकड़ों पर
बन रहे हैं कैनवस।