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आदिवासी (1) / राकेश कुमार पालीवाल

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आकाश के तारों की स्तिथि से चलती हैं
उनके दिमाग की सुईयां
पेड के फलने फूलने से बदलते हैं
उनके मौसम, महीने और बरस
 
उनके पास नही है छपा कैलेन्डर
मुर्गे की बांग से टूटती है उनकी नींद
और जंगल की जगार से होती है सुबह
 
अजान की जरूरत नहीं उनके खुदा को
अपने देवता को भी कर दिया उन्होंने
गांव के गुनिया के हवाले
वही कर देता है सबकी और से खुश उसे
और कुछ खास चढावा भी नही मांगते
आदिवासियों के देवता और गुनिया
दौनों समझते हैं अपने बिरादरों की
हैसियत और आर्थिक स्तिथि
वे जमीदार नही हैं जो चुका सकें भारी लगान
उनके पास नही हैं सोने चांदी के छत्र
आदिवासियों को ईश्वर और उसके एजेंटों की
कोई खास जरूरत भी नही है
 
वे खुद मालिक हैं अपने सुख दुख के
वे तो सभ्यता की संगत मे हो गये
थोडे से धार्मिक
अभी भी उनके राम मायावी नही हैं
सिर्फ पुरूष ष्रेष्ठ हैं
जैसे गांधी और मार्क्स हैं हमारे लिये