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आधियों में शष्य-घर हूँ / अमरेन्द्र

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आंधियों में शष्य-घर हूँ,
शिंजिनी पर दीन शर हूँ ।

और कुछ ही देर बाकी
शून्य में लहरा उठूँगा,
कुछ नहीं कुछ भी पता है
कौन-सा रंग-रूप लूँगा;
आग हूँगा, नीर हूँगा
या पवन, क्षिति का खिलौना,
पंच पुष्पों संे सजाया
काल का मैं हूँ बिछौना !
सिद्धियाँ सब क्षत-विक्षत हैं
एक निष्फल-सा समर हँू ।

पर नहीं मन मानता है
मैं किसी से हार जाऊँ,
प्राण को पाने लिए तो
मृत्यु के भी पार जाऊँ;
मुट्ठियों में बाँध लाऊँ
सिद्धियाँ, जीवन अमर जो,
धार में उसको मिला दूँ
उठ रहा है यह भँवर जो !
क्या हुआ जो घोर तम में
रोशनी की बूंद भर हूँ ।