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आनन्द वहीं है / कविता भट्ट

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मैं अपरिचित अनगढ़ दिक् पथ पर,
संग सत् चलने दो - आनन्द वहीं है।

विकट युवा अँधेरा, प्रकाश हो मंथर
तो उड्डयन टलने दो- आनन्द वहीं है।

रुष्ट स्वजन, क्रूर, कुंठित जग जर्जर
ये अश्रु निकलने दो- आनन्द वहीं है।

यदि प्रतिशोध खड़े हों विविध रूप धर
दीर्घायु मौन फलने दो- आनन्द वहीं है।

अवकाश रहित हो द्रुत, अंध युग निडर
जो छले हिय, छलने दो- आनन्द वहीं है।

पिय विकल आलिंगन, हों पिपासु अधर
तीव्र प्रेमाग्नि जलने दो - आनन्द वहीं है।

साहस शिखर सा दृढ़ हो, प्रज्ञा प्रखर
तो प्रेमांकुर पलने दो - आनन्द वहीं है।

श्वेत केशराशि, निर्जन वन ज्यों निर्झर
निज यौवन ढलने दो - आनन्द वहीं है।