भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आनन्द वहीं है / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
मैं अपरिचित अनगढ़ दिक् पथ पर,
संग सत् चलने दो - आनन्द वहीं है।
विकट युवा अँधेरा, प्रकाश हो मंथर
तो उड्डयन टलने दो- आनन्द वहीं है।
रुष्ट स्वजन, क्रूर, कुंठित जग जर्जर
ये अश्रु निकलने दो- आनन्द वहीं है।
यदि प्रतिशोध खड़े हों विविध रूप धर
दीर्घायु मौन फलने दो- आनन्द वहीं है।
अवकाश रहित हो द्रुत, अंध युग निडर
जो छले हिय, छलने दो- आनन्द वहीं है।
पिय विकल आलिंगन, हों पिपासु अधर
तीव्र प्रेमाग्नि जलने दो - आनन्द वहीं है।
साहस शिखर सा दृढ़ हो, प्रज्ञा प्रखर
तो प्रेमांकुर पलने दो - आनन्द वहीं है।
श्वेत केशराशि, निर्जन वन ज्यों निर्झर
निज यौवन ढलने दो - आनन्द वहीं है।