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आना-जाना / शिरीष कुमार मौर्य

वसंत तू आना
मुझसे हाथ भर मिला कर गुज़र जाना
वसंत तू आना
पर क्या करूँ
मुझे जितना जल्दी हो सके
है ग्रीष्म में जाना
तू आना

तो घरवालों से बतियाना
मैं कुछ दूर
अपने प्रिय ग्रीष्म में रहूँगा
पंचमी मनाना
मनाना मेरे कवि-पुरखे का जनमबार
तू कभी भी आ सकता है

जैसे शिशिर के बीच पड़ोस के जंगल से
माथे पर मद का वसंत लिए घूम रहे
जंगली हाथी के
चिंघाड़ने की आवाज़ आती है
कुछ दोस्त कहते हैं

वसंत अब दो हज़ार उन्नीस में आएगा
जैसा वसंत वे चाहते हैं
उसे एक कवि ने कभी भड़ुआ वसंत कहा था
मैं उनका ऐतबार नहीं करता

मैं तो तेरा भी ऐतबार नहीं करता
मैं ऐतबार करता हूँ
उस ऋतु का
जब गरमी से पपड़ाए खेतों में
पानी की क्यारियाँ बना

धान की पौध डालते हैं मेरे जन
जब एक गहरे अवसाद के बावजूद
डालों पर फल पकते हैं
हमें मिठास से भरते हैं
सुग्गे मारते हैं चोंच
तो मौसम

और दहकता है
मेरी देह से
टपकता रक्त भी
सोंधा महकता है
उस ऋतु का रितुरैण कोई नहीं
रचता है

उसी को रचते
एक दिन मेरी देह
अगले किसी शिशिर में
राख बनेगी
अगले किसी शिशिर की कोहरे से भरी
हवाओ

उसे तुम गाना
इस तरह
कि कोई सुन न पाए
न जान पाए आख़िरी चोंच मार गए
सुग्गे का उड़ जाना।