भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आभास / रंजना भाटिया
Kavita Kosh से
आकार नही ..
साकार नही..
बस ...
एक आभास ही तो है
और है ..
एक धीमी सी
लबों पर जमी हँसी
जो लफ्जों के पार से
हर सीमा से ..
छू लेती है रोम रोम
और फ़िर ...
चाहता है यह
बवारा मन
मोहक अनुभूति
के कुछ क्षण
जिस में रहे न कुछ शेष
न कुछ खोना
और न ही कुछ पाना
बस यूँ ही ...बहते बहते
कहीं एकाकार हो जाना .../poem>