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आम कुतरते हुए सुए से / जयकृष्ण राय तुषार
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आम कुतरते हुए सुए से
मैना कहे मुण्डेर की ।
अबकी होली में ले आना
भुजिया बीकानेर की ।
गोकुल, वृन्दावन की हो
या होली हो बरसाने की,
परदेसी की वही पुरानी
आदत है तरसाने की,
उसकी आँखों को भाती है
कठपुतली आमेर की ।
इस होली में हरे पेड़ की
शाख न कोई टूटे,
मिलें गले से गले, पकड़कर
हाथ न कोई छूटे,
हर घर-आँगन महके ख़ुशबू
गुड़हल और कनेर की ।
चौपालों पर ढोल-मजीरे
सुर गूँजे करताल के,
रूमालों से छूट न पाएँ
रंग गुलाबी गाल के,
फगुआ गाएँ या फिर बाँचेंगे
कविता शमशेर की ।