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आमुख / केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
बिंब नहीं
प्रतीक नहीं
तार नहीं
हरकारा नहीं
मैं ही कहूँगा
क्योंकि मैं ही
सिर्फ़ मैं ही जानता हूँ
मेरी पीठ पर
मेरे समय के पंजो के
कितने निशान हैं
कि कितने अभिन्न हैं
मेरे समय के पंजे
मेरे नाख़ूनों की चमक से
कि मेरी आत्मा में जो मेरी ख़ुशी है
असल में वही है
मेरे घुटनों में दर्द
तलवों में जो जलन
मस्तिष्क में वही
विचारों की धमक
कि इस समय मेरी जिह्वा
पर जो एक विराट् झूठ है
वही है--वही है मेरी सदी का
सब से बड़ा सच !
यह लो मेरा हाथ
इसे तुम्हें देता हूँ
और अपने पास रखता हूँ
अपने होठों की
थरथराहट.....
एक कवि को
और क्या चाहिए !