बाँह बिजायठ कमर कौड़ियाँ
सीप शंख के गहने
रात-रात भर जाग-जाग कर
आए हैं चुप रहने।
जंगल-जंगल पात-पात को
बेसुध गाकर मौन हो गए,
जड़ से माथा टिका
दूसरे पल साखू-सगौन हो गए,
पत्थर-पत्थर आग
नदी का पानी भाई-बहनें।
ओंठ जामुनी नयन अधपके-
हरे आम की फाँकें,
सीने की धड़कन से लिपटे
सपने कल के झाँकें,
देह साँवली अधनंगी
सदियों के नाम उलहने।
बादल के कंधो पर जब-जब
इन्द्र धनुष की डोर तनी,
लगा कि सूरज ओझल भर है
फैलेगी ही धूप घनी,
झलकी दिन की पीठ
पहाड़ी दिखी सुरमई पहने।