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आरज़ू / विजय कुमार विद्रोही
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(1)
तू
तब
कहाँ थी
जिस घड़ी
जलधार से
तकियों को मैंने
तर बतर
करके भी
सपने
थामे
थे
(2)
थे
तब
कहाँ पे
ये विरह
जब प्राण को
मेरे जकड़ के
अधर मौन
वचन ले
भीतर
दबी
थी
(3)
थी
वही
मिलन
आशा मेरी
बंदूक गोली
बम धमाकों के
गर्वित नाद
सुन मिले
असीम
सुख
की
(4)
की
मैंने
प्रार्थना
भगवान
इस धरा पे
शत्रु पद चिन्ह
कभी ना दिखें
इतनी सी
अरज
मान
तू