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आरती / 5 / भिखारी ठाकुर

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प्रसंग:

इस आरती में श्री विष्णु तथा उसके अवतार पर ऋषि-मुनियों को स्मरण किया गया है।

आरती

मन आरती करीलऽ श्री बैकुण्ठपति के।
शंख-चक्र ओ गदा पद्म ध्र कमठ सेस धरती के।
मोर मुकुट, उर माल, बंशीधर, हलधर जति-सती के।
सनक-सनन्दन-भिस्म-भगीरथ-सुखदेव-पारबती के।
सुरदास-अत्री-अगस्त मुनि बासी परम गति के।
श्रीउधव-अकरूर-ग्वालगण शान्ति कुमति हरती के।
नाच-कांच तजी भजीलऽ हरिपद धरहु भाव भगती के।
प्रेम के तेल, सुरत के बाती, जाति जीयत मरती के।
ज्ञान अग्नी से बार ‘भिखारी’ दिया सुनर सुमती के।
मन आती करीलऽ श्री बैंकुण्ठ पति के।
चली लट खोलत।
पर्बत तोड़त नग्न हिलोरत। आई है गंगा।
आई नगीच पाप कटीत। आई रही शिव के सत संगा॥
जब तक सूरज शिव-मस्त के। तब तक लोग परखारत अंगा॥
दास भिखारी बिचारी कहे। सब तीरथ में एक गंगा॥

चौपाई

श्रद्धा पात्र पवित्र में धरी लऽ जगह-जगह पर आरती करी लऽ।
जलचर, थलच, नभचर जतीना। बिलग जाति के नाम ह ततीना।
जात मनुष्य के एक कहाता। सुनी के गुणी के मन अगराता।
एही नाता से दुनिया भर के। मगन ‘भिखारी’ आरती करके।
मन आरती करीलऽ श्रीबैकुण्ठ पति के।