आर्य बाला / ‘हरिऔध’
बहु ललामता बलित अति ललित रुचियों वाली।
सकल लोक हित जननि भाव तालों की ताली।
मनुज रंजिनी कलित कला की कामद काया।
नव नव लीलामयी मूल सब ममता माया।
कमनीय विधाता कर कमल की रचना का चरम फल।
कल कीर्ति सुकुसुमावलि सजी जयति आर्य बाला सकल।1।
कमला लौं सब काल लोक लालन पालन रत।
गिरि नन्दिनी समान पूत पति प्रेम भार नत।
गौरव गरिमा मयी ज्ञान शालिनी गिरा सम।
काम कामिनी तुल्य मृदुलतावती मनोरम।
सुरपुर अधिपति ललना समा प्रीति नीति प्रति पालिका।
सब दनुज प्रकृति नर के लिए आर्य नारि है कालिका।2।
वह बहु अनुपम साधन की है सिध्दि उदारा।
वह है गुरुजन भक्ति भूमि की सुरसरि धारा।
वह है पति मन मधुप के लिए लतिका कुसुमित।
वह है सुन्दर सरसि सरोजिनि संतति के हित।
वह है मन मोहन मुरलिका मधुर मुखी मृदु नादिनी।
पुरजन परिजन परिवार जन गोप समूह प्रसादिनी।3।
वह है ममतामयी पूत माता अवलंबन।
वह है छाया समा प्रकृत जाया आलंबन।
परम प्रीति आधार भगिनी मणि की है वह खनि।
सहज प्रेममय सुता लताओं की है सुअवनि।
पर दुख कातरता सदयता सहृदयता अवलंबिनी।
वह है कुटुम्ब जन हित निरत परमोदार कुटुम्बिनी।4।
पा जिनका विज्ञान बनी अति पावन अवनी।
उन ऋषि गौतम कपिल व्यास की है वह जननी।
द्रोणार्जुन से धीर वीर औ महा धनुर्धर।
भीष्म तुल्य भूरत्न पले उसका पय पी कर।
उसकी सुज्योति ही बुध्द औ शंकर के उर में जगी।
जिनके अनुपम आलोक से जगत तमोमयता भगी।5।
नर है पीवर धीर वीर संयत श्रम कारी।
है मृदुतन उपराम मयी तरलित उर नारी।
विपुल कार्य मय नर जीवन है प्रान्तर न्यारा।
नाना सेवा निलय नारिता है सरि धारा।
मस्तिष्क मान साहस सदन वीर्यवान है पुरुष दल।
हैं सहृदयता ममतावती पयोमयी महिला सकल।6।
युगल मूर्ति सहयोग जनित है जग की सत्ता।
लालन पालन सृजन तथा संकलन महत्ता।
निज निज कृतिरत रहे युगल के सिध्दि मिलेगी।
किये अन्यथा प्रकृति चाल प्रतिकूल चलेगी।
हो उदय गगन तल में तभी विधु ढालेगा रस घड़े।
जब सुधाधार सी चाँदनी तृणवीरुधा तक पर पड़े।7।
हृदय हृदय मस्तिष्क सदा मस्तिष्क रहेगा।
वीर्यवान सम पयोमयी को कौन कहेगा।
स अवसाद जन नवजीवन तब कैसे पावे।
स अवसाद उपराममयी ही जब बन जावे।
युग भिन्न प्रकृति जो परस्पर हित वांछा से है बनी।
उनकी विभन्नता ही फलद है समानता से घनी।8।
भलीभाँति यह तत्तव आर्यतिय को है अवगत।
इसीलिए वह हुई नहीं समता विवादरत।
पा माता पद उच्च, सदन की जो है देवी।
सब कुटुंब जिसके सरोज पग का है सेवी।
वह क्यों समानता लाभ के लिए रहे चाहों भरी।
जो बन सच्ची सहधार्मिणी है गृहपति हृदयेश्वरी।9।
आत्म त्याग मंदार कुसुम से मंडित बाला।
क्यों पहनेगी आत्म प्रेम कुरबक की माला।
जो उदारता सुधा परम रुचि से पी लेगी।
वह क्यों प्रतिद्वंद्विता सुरा प्रेमिका बनेगी।
नर से समानता समर कर वह क्यों दिखलावे दुई।
जो सुरसरि धारा लौं मिलित जगहित जलनिधि में हुई।10।
अहमहमिका उपेत स्वार्थ परता में डूबी।
जिन अधिकारों के निमित्ता अधिाधिक ऊबी।
है समाज कमनीय गात की कुत्सित बाई।
परम रुचिर संसार सरोवर की है काई।
होगी बरबिधिा की बाधिाका जो हो वाद विधायिनी।
जाया जीवन अवलंबिनी जननी जीवन दायिनी।11।
वह समाज अनुराग कुसुम खिलते कुम्हलावे।
जिसमें से बहुविधा विलासिता की बू आवे।
कभी जाति हित का वह पादप पनप न पावे।
जो अवलंबन स्वरुचिलताओं का बन जावे।
वह देशप्रेम नवजनित शिशु भूतल पर गिरते मरे।
बर जीवन बहु नर-नारि का कूट नीति मय जो करे।12।
वह स्वतंत्रता रुचि प्रियता निजता जल जावे।
जो सुशीलता मानवता का गला दबावे।
वह मतिमत्ता नीति चतुरता वंचित होवे।
सत्य न्याय सौजन्य सुरुचि गरिमा जो खोवे।
वह गौरवममता समदता आत्म महत्ता धवंस हो।
जो पति प्रियता हितकारिता भव वत्सलता मय न हो।13।
जो सामयिक प्रवाह है जगत बीच प्रवाहित।
कैसे भारत अवनि न उससे होती प्लावित।
इसीलिए हो चली सुरुचि धारा कुछ गदली।
गति मति कितनी आर्य कामिनी की है बदली।
पर काम चारुतर रजत का राँगा द्वारा कब चला।
जलधार माला से आवरित सब दिन रही न विधुकला।14।
जिनका जीवन उच्च वेद वचनों द्वारा है।
जिनकी रग में बही पुनीत रुधिर धारा है।
वे अति पावन चरित आर्य कुल की बालाएँ।
भूलेंगी, पर तज न सकेंगी पूत प्रथाएँ।
कालान्तर में पा उन्हीं में परम अलौकिक आत्म बल।
आजावेंगी आलोक में भूतल की महिला सकल।15।