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आल आजादी / मथुरा प्रसाद 'नवीन'
Kavita Kosh से
कहलके हल
हमर बुढ़िया दादी
कि ए बबुआ
जब ऐते आजादी
तब अहिंसा के गरदन में
लटक जैतो हिंसावादी
आजादी दियासलाय हे,
ओतनै ई इंजोर करऽ हे
जेकर जेतना आय हे
ई आय के श्रोत
हमरा आँख से नै हे इलोत
हमरा तो
सूझऽ हे रोटी,
के बूझऽ हे
हम नंगटे ही कि
पिन्हने की
फटल लंगोटी।
ई रोटी के चाँद
तोड़ के के लैते?
ऊ जे हमर खून
जमा कर रहल हे?
ओकर हाथ
ममोर के के लैते?
सुन रहलिये हे कि
उठ रहले हे मजूर किसान,
जुट रहले हे
दुनिया के इंसान।