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आलम तमाम रंज का मंज़र दिखाई दे / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी

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आलम तमाम रंज<ref>दु:ख</ref> का मंज़र<ref>दृश्य</ref> दिखाई दे
ऐसा हुजूमे-ग़म<ref>दु:खों की भीड़</ref> है कि महशर<ref>क़यामत</ref> दिखाई दे

उस ख़ित्ता-ए-ख़याल<ref>कल्पना</ref> से आया हूँ मैं जहाँ
ख़ुद अपना-आप ज़ेह्न<ref>मस्तिष्क</ref> से बाहर दिखाई दे

इस दौरे-बेशऊर<ref>नासमझ</ref> में कुछ लोग हैं जहाँ
जलता चमन बहार का मंज़र दिखाई दे

लुत्फ़े-शबे-विसाल<ref>मिलन की रात्रि का आनन्द</ref> की पल भर रहीं न याद
कर्बे-शबे- जुदाई <ref>विरह की रात की तड़प</ref>कि अक्सर दिखाई दे

नज़रें बदल गईं कि ज़माना बदल गया
क्यों अब निगाहे- नाज़ सितमगर दिखाई दे

आया तो एहतियात<ref>सावधानी</ref> से था कू-ए-यार<ref>मित्र की गली</ref> में
हर नक्शे-पा<ref>पद-चिह्न</ref> मगर मेरा मुख़बिर<ref>सूचना देने वाला</ref> दिखाई दे

सख़्ती सही मिज़ाज में लेकिन न इस क़दर
दिल का जो आईना है वो पत्थर दिखाई दे

आ ही गई न हो कहीं मंज़िल हयात<ref>जीवन</ref> की
इक ज़ाविया<ref>दृष्टिकोट</ref> निगाह से हटकर दिखाई दे

यह इन्तहा-ए-शौक़<ref>शौक़ की चरम सीमा</ref> का अंजाम ही तो है
यह आसमाँ ज़मीं के बराबर दिखाई दे

जन्मों से जो रहा है तेरे इंतज़ार में
वो मोड़ तेरे पाँव की ठोकर दिखाई दे

ऐ `चाँद' बच निकलना वहाँ मुहाल<ref>कठिन</ref> है
क़ातिल जहाँ ख़ुलूस<ref>अच्छे व्यवहार</ref> का पैकर<ref>मूर्ति</ref> दिखाई दे

शब्दार्थ
<references/>