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आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे / हिन्दी लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के बाबा बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की दादी बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के ताऊ बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की ताई बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के पापा बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की मम्मी बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के फूफा बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की बुआ बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के चाचा बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की चाची बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के जीजा बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की दीदी बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे

आलू-मटर वाले ने, गलियों में जा के शोर किया रे
बन्नी के भईया बड़े कमाऊँ, भर भर दोने लाते है
बन्नी की भाभी बड़ी चटोरी, भर भर दोने खाती है
चाटा पत्ता फेंक दिया, गलियों में जा के शोर किया रे