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आलोचक रै नांव / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
जद म्हारै सपनां में ई कोनी
तो कींकर हुवैला
म्हारी कवितावां में
मनभावता रंगील चितराम।
म्हैं पड़तख देखी है भूख
म्हारै च्यारूंमेर
न्यारै-न्यारै रूपां में
अर उगेरी है
भूख-राग
म्हारै हरफां में
बिना लाग-लपेट।
म्हनैं माफ करजै आलोचक!
पीड़ रै दस्तावेजां में
सोधणा बिरथा है-
शिल्प अर सौन्दर्य बोध।