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आलोचना को जी रही हँ / निर्मला जोशी
Kavita Kosh से
दर्द मेरे द्वार पर दस्तक निरंतर दे रहे हैं
इसलिए मैं गीत की संभावना को जी रही हूँ।
गीत का यह कोश सदियों से
कभी खाली नहीं था।
यह चमन ऐसा कि इसको
देखने माली नहीं था।
यह मुझे ज़िंदगी के मोड़ पर जब-जब मिला है
मैं इसे देने उमर शुभकामना को जी रही हूँ।
दर्द इसने इस तरह बांटे कि
मैं हारी नहीं हूँ।
आंसुओं से एक पल को भी
यहाँ न्यारी नहीं हूँ।
हारना मेरी नियति है, जीतना मेरा कठिन है
यह समझना भूल, मैं उदभावना को जी रही हूँ।
बहुत कुछ मुझको यहाँ मांगे
बिना ही मिल गया है।
एक शतदल मन-सरोवर में
अचानक खिल गया है।
जो समीक्षक ढूंढ़ते हैं, छंद में गुण दोष मेरे
मैं उन्हीं की दी हुई आलोचना को जी रही हूँ।