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आल्हा / अछूतानन्दजी 'हरिहर'

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पहले सुमरों सतगुर स्वामी, दीन्हा लौकिक आतम ज्ञान,
ब्रह्म रूप चेतन घट-घट में, व्यापक सकल सृष्टि दरम्यान।

सो ही आदि शक्ति सत्ता में, होय तत्व संयोग वियोग।
नज़र पसार लखो जो कुछ भी, है सब माया में उपयोग।

अलख अनादि अदेह अनूपम, आतम रूप झलक दर्शाय।
है प्रत्यक्ष समक्ष सभी कै, तौ भी सहज समझ नहिं आय।

बिन पारख के भेद न पाये, जीवन मुक्ति साधना मूल।
माया ब्रह्म विचार सार है, क्रम विकास विज्ञान उसूल।

सो खगोल विद्या बिन जाने, जग विज्ञान समझ में पोल।
ब्रह्म विलक्षणता माया में, बने नक्षत्र ग्रहादि खगोल।

ऐसे गोले बहुत बने हैं, जिन में लोक बसें अनमोल।
उन में से ही एक हमारा, यही भूमि गोला भूगोल।

जिस भूमण्डल पर हम बस्ते, उस का एक अंश ये खण्ड।
जम्बू दीप मध्य में हैं ये, हिन्दुस्तान सार भूमण्ड।

देश हिन्द है नाम पुराना, कुछ तारीफ करी ना जाय।
...गण्य उन्नत सब ही से, सभ्य हमी थे वेद बताय।

देखो पारसीन की पुस्तक, सशातीर नामः जरतुस्त।
जो है वैदिक वंश आर्यन, ईरान आयरीशादी दुरुस्त।

इक थैली के चट्टा बट्टा, पुरातत्व वेत्ता बतलाँय।
अनुसन्धान किया सब भारी, जिन आये सब सीस झुकाय।

शब्दापेक्षिकी विद्या जो, भाषा तत्व खोज है सार।
ज़न्दावस्ता छन्द व्यवस्था, अपभ्रन्शादि किया सुविचार।

यो ही रिग्वेद आदिक भाषा, मिला देखिये ज़न्द ज़बान।
सात हजार वर्ष निगचानै, जब से आर्य्यं बसे यहं आन।

आर्य जाति पर जो कुछ बीता, वोरिग रिचा मंत्र में गान।
सबसे है प्राचीन ग्रन्थ सो, सायण भाष्य वेद व्याख्यान।

आर्य जाति का आल्ह खण्ड है, वो रिगवेद युद्ध का भेद।
बहुतक रिषियों ने गाई है, स्तुति इन्द्रादिक की करि खेद।

विश्वामित्र के सुत मधुछन्दा, उन के जेता सुत निर्लेप।
कण्व पुत्र मेंधातिथि कहिये, अजीगर्त के सुत शुनः शेष।

वशिष्ठ बन्सीशक्ति परासर, लोपामुद्रा अगस्त की नार।
जिन के नाम मन्त्र में आये, ऐसी बहुतन करी पुकार।

उसी वेद से पता चलाया, सुनी जो पुरखन की मौखादि।
के हम आदि वन्श हैं हिन्दू, और द्विजाती कहिये बाद।

पण्डित पत्रा वेद छिपाये, बन्श भेद नहिं हमें सुनाँय।
उल्ट भुलावो देयं सभी को, गुण गौरव प्राचीन मिटायँ।

और नीच कहके हम सब पर, करें जुल्म और अत्याचार।
उन्नति पद पर नहिं चढ़ने दें, रखें बनाय गुलाम गंमार।

पुनर्जन्म का रच ढकोसला, प्रारम्भ घर के सिर भार।
की तुम पूर्वले कर्मों से, जन्में नीच जाति मंझार।

सेवा कर्म तुम्हारा ही है, तुम हो इस के ठेकेदार।
गाली मार हमार सहो सिर, करो अछूतो तुम बेगार।

यही हुक्म है नारायण का, शूद्रों भोगो सेवा कर्म।
फेर जन्म जब पाओगे तो, तुम्हें मिले द्विज जाति धर्म।

धर्म मनुष्यत्व ही भुलाया, रचा पशुत्व स्वार्थ का जाल।
यहाँ कि बातें यहीं रह गईं, अब पीछे का सुनिये हाल।

आर्य जाति जब आई हिन्द में, स्वर्ण भूमि लखि के सुख पाये।
आदि हिन्दुओं से लड़ भिड़ के, रही सिंधु तट छप्पर छाय।

धन दौलत की कौन चलाई, धातु पात्र भी नहीं नसीब।
मिट्टी कूंडे काठ कठौती, भर-भर पीवें सोम गरीब।

जौ पत्थर पर भूंजें चाबें, सत्तू फाँकि करें गुजरान।
गऊ मेध कुर्बानी मानें, अश्व मेध घोड़ा बलिदान।

अजामेध बकरी को काटें, छांटे बांटे हिस्से दार।
वेद उपनिषद मीमांसा में, विधि बतलाँय पुकार-पुकार।

चौथा है नरमेध यज्ञ बलि, राजे शत्रु तहाँ चढ़वाँय।
आदि सभ्यता में ये हरकत, हैवानियत बन्द करवाँय।

अर्थ छिपाय शुभःशेष के, तहु शतपथ ब्राह्मण में पायें।
‘अश्वालम्ब, गवालम्बम् कलि, पन्च विवर्जित’ शास्त्र बताँय।

वेद मन्त्र में गाँवें ये सब, हालत निज आर्य्य दर्शायें।
‘माँस भिक्षा मुपासीत’यों, यज्ञ प्रसादी माँगें खायें।

घोड़े, गौ, धन, अन्न, नगर, घर, किले पुरन्दर इच्छा वान।
बड़ी चाह से माँगे खेती, करें प्रार्थना आर्यं किसान।

अग्नि, वायु, सूर्य, इन्द्र, वरुण, इत्यादि देव की पूजा ठान।
आदि वन्श पै वे चढ़ दौड़े, डाकू छली आर्य्य हयवान।

स्वर्ण भूमि की खातिर तन-मन, सेती करें युद्ध घमसान।
भय खाँवे विनती कथ गावें, करि-करि इन्द्र देव का ध्यान।

अगुवा आर्य जाति ने माना, दिवोदास के धर सिर ताज।
वृत्र कृष्ण संवर नेता थे, आदि हिन्दुवन के महाराज।

जिनके सौ-सौ किले बने थे, अर्ध लाख सेना संग साज।
भारी युद्ध किया आर्यन से, होन हार की पड़ गई गाज।

छलौ छिद्र रच किले छीन कर, धोखे से कारे सब काज।
साम दाम और दंड भेद ये, कपट नीति से किया स्वराज।

धर्म नीति से आर्य जो लड़ते,तो गिनती के साढ़े तीन।
इने गिने सब मारे जाते, के गुलाम बनते आधीन।

फोड़-फोड़ कर भेद नीति से, द्विज श्रेणी रच दी मखलूत।
रिश्तेदारी तक कर डाली, वैदिक मत के पढ़ो सबूत।

संस्कार सोरह फैलाए, होम यज्ञ के रचे विधान।
सौ भी चिन्ह प्रबल प्राचीनी, छूट गई नहिं रस्म निदान।

जो सब में अब तक फैली है, रीति नाग पंचमी मनाँय।
घर-घर नारि नाग लिख पूजे, सेना, गढ़, गजहय, रथ गाय।

होरी, भुंजरिया, पीपल, तुलसी, बट पूजन बृक्षन व्यौहार।
कोल भील द्राविड़ आदिन में, यही गोत और तीज तौहार।

कृष्ण आदि हिन्दू राजा तो, गो वर्धन पूजा कर वाँय।
आर्य देवता इन्द्र छुड़ाया, वैदौ भागवत जंग जनाँय।

जो कि स्वाभिमान हित बन गए, युद्ध समय प्राचीनी गाँय।
पकड़े उन्हें गुलाम बनाए, शूद्र अछूत नाम धरवाँय।

इन सब में क्या द्विज जातिन में, भी वह प्रथा लीजिए देख।
हाँ! अब नए आर्य त्यागत हैं, पर नहिं मिटने के ये लेख।

यों दो जातिन के मिलने से, हुई द्विजातीय थी तैयार।
उन में शैव शाक्य वैष्णव हैं, करें वही प्राचीन प्रचार।

वे ही दो जन्मज रीतिन को, धर्म मध्य धारण कर वाँय।
सोई सनातन अर्थ आदि के, प्राचीनी हिन्दू कहलाँय।

बहुत गोत हैं शूद्ध सनातन, जो न वेद वाणी में पाँय।
वही कुदरती बनवासिन के, गोत शूद्र द्विज सभी रखाँय।

यों ये आदि बन्श से निकले, और अभी भी निकरत जाँय।
नहीं वर्ण संकर शूद्रदिक, द्विज हो तो ऐसे दर्शांय।

रीषि जाबाल पिता नहिं जिनके, माता ने बतलाए अनेक।
जाने किसका गर्भ रहा था, छाँदोग्य में ये गाथा-एक।

गणिका गर्भः संभूतो थे, मुनि वशिष्ठ वैदिक विद्वान।
जिनकी कथा मंत्र वेद रिग, में है पैदायश व्याख्यान।

स्वयं मंत्र रचता हो गये थे, मंत्री दिवोदास के दोय।
वशिष्ठ विश्वामित्र परस्पर, द्वेषी थे पढ़ लीजे कोय।

रिग्वेद मंडल पढ़ो तीसरा, जिनके अर्थ छिपायें आर्य।
उल्टे अर्थ किये हैं तौ भी, बहुत प्रमाण मिले अनिवार्य।

सायण भाष्य श्रेष्ठ सब में है, जिनको माने सर्व सुजान।
दयानन्द भाष्य में बदला, अर्थ छिपा इतिहासिक ज्ञान।