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आशरा / नवीन ठाकुर ‘संधि’
Kavita Kosh से
कड़- कड़ रौद होलै सुखाड़,
झिर- झिर झोॅर पड़ै फुहार।
बरसै नै झमकी केॅ पानी परूवा,
केना होतै धान बीज रोॅ पौवा।
पानी बेगर मरै लागलै धान बीचड़ोॅ पौहा,
चारो दिश मरै लागलै जीव जंतु कौवा।
झंखड़ बुझाय छै जमीन- जगहोॅ पहाड़,
कड़- कड़ रौद होलै सुखाड़।
बीतलै आखार सौनोॅ रोॅ आस,
तरसै धरती कहिया लेॅ बुझतै पियास ?
ललचै किसान कहिया लेॅ सौनोॅ रोॅ बरसा,
पूरबोॅ रोॅ पानी पलटी दिहोॅ पाशा।
मचलै ‘‘संधि’’ मौनसुन ऐलेॅ लैकेॅ हरा बहार,
कड़- कड़ रौद होलै सुखाड़।