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आषाढ़ तो आया / जीवन शुक्ल
Kavita Kosh से
आषाढ़ तो आया
घास नहीं
हो उठी झरबेरी
हरी हरी।
हथेलियाँ पसार दीं
शूलों पर वार दीं
टुकड़े हो टूट पड़ा
आसमान धरती पर
घूँघट में धूल की
कल तक थी डरी डरी
आज है हरी हरी ।
कैसे क्या ले आऊँ
सूनापन भर जाऊँ
रुकती नहीं है
गति ये कलेण्डर की
ओ रे पहुना रे घन !
कमरव की आँखें हैं
भरी भरी
हो उठी झरबेरी
हरी हरी।