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आस / अग्निशेखर
Kavita Kosh से
बूढ़ा बिस्तर पर लेटे
आँखों-आँखों नापता है आकाश
फटे हुए तम्बू के सुराख़ों से
उसकी झुर्रियों में गिर रही है
समय की राख
चुपचाप घूम रही है
सिरहाने के पास
घड़ी की सुई
उसकी बीत रही है
घर लौटने की आस