भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 24 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
परंतु मानवता
अपनी ही, संतान के हाथों
कठपुतली बनकर रह गई है
और सरेआम बिक रही है
गलियों में, सड़कों पर
फुटपाथों पर, चौराहों पर।
बसों में, रेलगाड़ियों में
समुद्र में, हवा में।
कहीं भी देख लो
चारों तरफ
नजर आएंगी
लाशें ही लाशें
परंतु मानव
इन्हें कर नजरअंदाज
बड़े गर्व से
बढ़ जाता है आगे
सोचकर
ये सीढ़ियां हैं
मातृभूमि के मंदिर तक।