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आस्था - 48 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
जब मानवता की
ओढ़नी का कर रहा हूँ, मैं जिक्र
यह पगड़ी
किसी मानव के लिये
संबोधित नहीं हो सकती
क्योंकि उसने
मर्यादा को हमेशा
देश या परिवार की सीमाओं
तक ही देखा है।
सीमाओं को
जब-जब खोदकर बनाया गया है
उसमें या तो
बेकसूरों का खून
फुव्वारा बनकर फूटा है
या फिर
आपसी भाई चारा
दफन होकर रह गया है
हाँ, पगड़ी का
मेरा यह संबोधन
उसी व्यक्तित्व के लिये है
जिसने यह मिट्टी बनाई है
न कि मानव के लिये
जिसने बनाई हैं, ये सीमाएँ।