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आस्था - 64 / हरबिन्दर सिंह गिल

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यह सब शायद
इसलिये हो रहा है
मानव की आस्था
संकुचित होकर
जातिवाद तक
सीमित हो गई है।
संकुचित आस्था
मानव के लिये
कैसे
वरदान साबित होगी
यह मैं नहीं जानता
परंतु
बगीचे में पौधों पर
लगे तुषार को देख
मन उदास हो जाता है।
खुशबू की चाहत
तो दूर उजड़ जाने का डर है।