आस्था और क्षणिकायें / राजीव रंजन प्रसाद
आस्था -१
मुझे गहरी आस्था है तुम पर
पत्थर को सिर झुका कर
मैने ही देवत्व दिया था
फिर
तुम तो मेरा ही दिल हो..
आस्था -२
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
कैसे दर्द नें तराश कर बुत बना दिया हमें
और तनहाई हमसे लिपट कर
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलानें को तत्पर है
पत्थर फिर बोलेंगे
ये कैसी आस्था?
आस्था -३
सपना ही तो टूटा है
मौत ही तो आई है मुझे
जी नहीं पाओगे तुम लेकिन
इतनी तो आस्था है तुम्हे
मुझपर..
आस्था -४
पागल हूं तो पत्थर मारो
दीवाना हूँ हँस लो मुझपर
मुझे तुम्हारी नादानी से
और आस्थाये गढनी हैं...
आस्था -५
तुमनें
बहते हुए पानी में
मेरा ही तो नाम लिखा था
और ठहर कर हथेलियों से भँवरें बना दीं
आस्थायें अबूझे शब्द हो गयी हैं
मिट नहीं सकती लेकिन..
आस्था -६
मेरे कलेजे को कुचल कर
तुम्हारे मासूम पैर ज़ख्मी तो नहीं हुए?
मेरे प्यार
मेरी आस्थायें सिसक उठी हैं
इतना भी यकीं न था तुम्हें
कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हें
कलेजा चीर कर
तुम्हें फूलों पर रख आता..
६.०१.१९९७