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आह! आज कितनी सदियों पर/ विष्णुकुमारी श्रीवास्तव ‘मंजु’
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आह! आज कितनी सदियों पर, आई हो माँ! इस कुटीर में।
बोलो तुम्हें अर्ध्य दूँ कैसा? उड़े विभव कण-कण समीर में॥
क्यों माँ! कैसे भूल सकी थी, विजित आर्य-सन्तानों को।
अरी निष्ठुरे! निर्मल होकर मसल दिया अरमानों को॥
भूत-भव्यता आर्य-भूमि की, अरी शक्तिदा! भूल गई क्यों।
समर-रंगिणी! नष्ट-तेज क्यों? विश्व-वीरता लुप्त हुई क्यों।
ओ माँ! जब तुम मिल प्रताप से, आई थीं हँसकर प्रभाव में।
चमक गिरी असि तड़ित माल सी, गगन भाल से शत्रु-गीत में॥
वे दिन हाय! हुए सपने से, हुई निधन हम हन्त आस में।
विगत शक्ति क्या आ न सकेगी, पुनः हमारे चन्द्रहास में?