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आह्लाद / सियाराम शरण गुप्त

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आज पड़ती है जहाँ मेरी दृष्टि
पाती वहीं नूतन रहस्य सृष्टि
मेरे कान,
सुनते हैं जो कुछ समस्त वह स्वगीय गान।
मेरे प्राण
जो कुछ है चारो ओर, -
जिसका न ओर छोर-
हो गये उसी में हैं विलीयमान।
मेरा आज,
आज चिरकाल में रहा विराज।
मेरे अरे ओ अनंत,
मुझको बता दे, कहाँ अंतर्हित तेरा अंत।