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आह्लाद के प्रति / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
रोजमर्रा की खबरों से
एकदम अलग होती है यह खबर
कि कोई आए उस घड़ी जब
मौसम खिलाफ हो यात्राओं के
और छोड़ देते हों सब मित्र को घने अकेलेपन में
आदत के मुताबिक ठीक ऐसे ही समय
आया था वह
अकेला था मैं और आकाष
निहारता रहा कई-कई दिनों तक
जैसे मिला हो जन्म-जन्मांतर बाद
उसने काट दिये कई दिन
यहां तक लंबी भयावह रातें भी
रहा एकदम चुप
या सहलाता रहा आस-पास कुछ इस तरह
मानों फेर रहा हो अंगुलियाँ
अहसास के धूसर बालों में
एक दिन बिना कुछ कहे
लौट गया वापस वह
कोई फर्क पड़ा, न पड़ा हो उसे
कह नहीं सकता
बहुत गहरा असर है हवाओं में लेकिन
हवाएँ छोड़ रहीं हैं जगह
मैंने बस खोल दिया है पंखा पूरी गति में