इंसानियत / राजीव रंजन
‘दादरी’ में नहीं मरा था ‘अखलाक’।
वहाँ मरी थी हमारी इंसानियत।
इंसानों ने ही धर्माधंता के चाकुओं से,
गोद-गोद कर की उसकी हत्या नृसंस।
आज धर्म का ठेकेदार बना है यहाँ कंस।
वे भी हत्यारे जो मूकदर्शक आज खड़े है।
धर्म को बचाने कंस से जो युद्ध नहीं लड़े हैं।
हमारे हाथ भी उसकी खून से रंगे हैं।
धर्म के दामन पर भी खून के छीटें पड़े हैं।
आग लगी, तब कौन से घर बचे हैं।
इंसानियत संग पावन बंधन भी जले है।
आज धर्म और वोट के ठेकेदारों ने ही,
पानी वाले कुओं में भी आग लगाई है।
आग बुझाने की थी जिसकी जिम्मेदारी,
उसने ही इंसानियत की चिता जलाई हैं।
इंसानियत की चिता पर जो रोटी सेंकते हैं।
न ही वो हिन्दू, न ही मुसलमान और,
न ही हैं वे कोई इंसान, वो वोट की-
खातिर इंसानियत की बोटी नोचते हैं।
‘दादरी’ में अखलाक या कश्मीर में अमर मरे हैं।
यह तो इंसानियत पर ही लगे घाव गहरे हैं।
चँद चाँदी के सिक्कों से कहाँ ये भरे हैं।
नफरत के मैदान मुल्क में आज भी हरे हैं।
वोट खातिर सियासत-दानों के चाल में,
भाई-भाई के दुश्मन बन वहाँ खड़े हैं।