भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक बार / जया जादवानी
Kavita Kosh से
तेरी आवाज़ की ख़ुशबू
बहते दरिया की आहट
आ जिस्म की गली लकड़ी सुलगाएँ
आ कुछ ख़्वाब पकाएँ
गर्म करें इन पिंजरों को फिर
धौंकनी को फिर फूँकें
सुर्ख़रू होकर खड़े हों
इसके पहले लाजिमी है
इक बार राख हो जाएँ।