भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इकतारा / मिरास्लाव होलुब / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
ईश्वर बजा रहा है अपना इकतारा,
न साज उसे चाहिए, न गवैये, न गीत।
ख़ामोश है हमारा ब्रह्माण्ड यह सारा,
उड़ रहा है चारों तरफ़ अबूझ संगीत।
ईश्वर नहीं हूँ मैं, हूँ उसका इकतारा,
बज रहा हूँ क्यों, यह भी जानता नहीं।
इस विशाल दुनिया में नहीं है कोई सहारा,
कोई मदद करेगा, मन यह मानता नहीं।
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय