इच्छाएं / अनिल मिश्र
जिसे रात गूंथती है मिट्टी की तरह
और दिन जिसे चढ़ा देता है
किसी चाक पर
एक सांचे में ढलने के लिए
जो पकती रहती हैं उम्र की भट्ठी में धीरे-धीरे
लगातार बहती हैं रक्त में
मेरे सोने के कमरे की दीवाल से
रोज शाम एक बेल निकलकर
बढ़ने लगती है स्वप्नों में श्वांस दर श्वांस
वो कुछ कहती है मैं अनुसुना कर देता हूं
कुछ दिनों बाद महसूस होता है
वो मेरी आदतों में उगने लगी हैं
और उसके शब्द बाहर निकलकर
छपने लगे हैं मेरी सुबह शाम पर
कोई दिन अपने चश्मे ठीक करता
पढ़ता है उन शब्दों को
और गहरे चिन्तन में डूब जाता है
सावन की हल्की फुहारों से आते हैं
बचपन के कुछ भूल गए किस्से
और काटते रहते हैं
पहाड़ी के पैर एक किनारे से
किसी दिन अचानक आवाज आती है
मेरा भू स्खलन अब रुकता नहीं
लाख चाहूं तो भी
नीचे एक गहरी खाईं खींचती रहती है
मेरे निराधार होते शिला-खण्ड
तुम्हारे साथ और तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है
मुझे बहुत से नियमों की जानकारी नहीं है
मेरा हाथ पकड़कर खींचते जाते हो मैदान में
यह जाने बिना
कि जीत जाने के बाद भी
रेफरी ने कितनी बार कर दिया
मुझे फाउल करार
और छीन लिए जीते तमगे
तुम्हारे रंगों को मानता रहा मैं
सिर्फ कुदरत के खेल
यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी
जबकि तुम बनाते थे संसदों में कानून
और सड़क पर लाल बत्ती तुम्हीं फांदते थे
एक बड़ा उद्योगपति गरीबों से भीख मांगता था
और अपनी याच पर होकर सवार
निकल जाता था सात समुन्दर पार
छू-मंतर
पंचकोशी परिक्रमाओं में
कांवर की तरह
कंधे पर रखकर अपनी श्रद्धा
हम मांगते थे छोटे छोटे वरदान
पर तुम दूर निकल जाते थे
आवारा बादल की तरह आंखें मिचकाते
क्या यह संयोग थ
कि उस ऊंची पहाड़ी के
घने जंगलों ने जब तुम्हें रोका
तो निचोड़ लिया अन्तिम बूंद तक
दर्दो और पछताओं की रामनामी लपेटे
मैं मंदिर की चैखट पर
दीया बालने जाता हूं
और वापस लौटता हूं जले हाथ लिए
तुम्हारे तिरस्कार के घावों से भरा
एक और घाव को इलाज समझकर
बैठा रहता हूं देवता के सामने
मुझे बन्दर की तरह नचाती मायावी योगिनों !
एक दिन टूट जाओगी मेरे साथ-साथ
जैसे मृदभांड
फिर प्रेत की तरह घूमोगी
जिन्दगी के बाहर अधूरे छंदों में