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इतना औसत समय / सुदीप बनर्जी
Kavita Kosh से
इतना औसत समय
इतनी गहरी व्यथा
इतना विचलित मन
गाफ़िल अपने ही शोर में
कोई रह-रहकर पुकार उठता
जगाता ख़ौफ़नाक हसरतों को
पीछे मुड़कर देखने पर
कोई कहीं भी तो नहीं
सधती नहीं यह भाषा
इतना भरा-भरा मन
इतने गुज़र गए लोग ।
रचनाकाल : 1992