भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इतना सब कुछ करने को / सुदीप बनर्जी
Kavita Kosh से
इतना सब-कुछ करने को
इतने सपने साकार
फिर भी यह कैसा खौफ़
अंदर को बाहर फेंकता हुआ
बीवी-बच्चों से प्यार
पड़ोसियों से भी नहीं परहेज़
सारी दुनिया पर एतबार
फिर भी अभय नहीं देता यह सब-कुछ
कहीं और कहीं और जाने का मन
बिलावज़ह की यह बेचैनी
अंदर को बाहर फेंकता हुआ समय ।
रचनाकाल : 1991