भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इतनी दूर जाऊँ कि भूल जाऊँ / विष्णु नागर
Kavita Kosh से
मैं उत्तर में इतनी दूर चला आया
कि दक्षिण को भूल गया
और अब सोचता हूँ
कि दक्षिण में इतना दूर चला जाऊँ
कि उत्तर को भूल जाऊँ
यहाँ तक कि दक्षिण में हूँ
यह भी भूल जाऊँ!