इतने बरसों बाद वनलता सेन / आलोक श्रीवास्तव-२
वनलता सेन !
मिलीं तुम
इस जगमग रौशनियों के शहर की
सूनसान एक सड़क पर
किसी और नाम-रूप में
श्रावण की मेघाच्छादित दोपहरी में
बैठी थीं तुम सीढ़ियों पर मेरे साथ
सामने के पेड़ से रह-रह टपकता था रुका पानी
कितने दिन, कितनी रात, कितने कल्पों से
इसी दिन का इंतजार था
जब पाऊंगा तुम्हें
अपने पार्श्व में --
उन्नत मुख
दीप्त नयन
हवा में उड़ रहे थे
कंधों तक ठहरे तुम्हारे बाल
तुमने सुनाई भरी आंखों कथा अपने विगत प्यार की
वेनिस की एक सड़क का
एक दृश्य उभर आया सामने
पर तभी तुम बोलीं
मुझे निरुत्तर करतीं कि
प्रतिदान नहीं कुछ तुम्हारे पास
मेरे प्यार का
बारिश से भीगी सड़क पर
कितनी तो गुज़र गईं बसें
दूर गोदी से आती आवाज़ें
शहर के गॉथिक स्थापत्य में ठहरा अतीत
जैसे सब स्तब्ध उस पल...
क्यों बोलीं तुम
वनलता सेन, क्यों
कि प्यार नहीं करतीं तुम मुझे ?
इतने काल बाद
दूर देशावर में क्यों मिले हम !
फिर कितने नगर, वन, वीथी, गए बीत
फिर कितने कल्प समूचे
मलय सागर तक -- सिंहल के समुद्र से
भर अंधकार में मैं भटका हूँ
धूसर लगते संसारों में
दूर समय में....