इतिहास के ठग / शमशाद इलाही अंसारी
क्रान्ति-चक्र, परिवर्तन-चक्र
इन आवाज़ों ने तोडा़ पसरी निस्तब्धता को
उत्पीड़न के ज़ख्मों को नंगा कर
भाषणों में शोषण की तस्वीर दिखाकर
ठग लिए गए वोट
हो गये पदों के वितरण,
बन गई नये चेहरों की,
पुराने ढाँचें पर "सरकार"
...इस पुराने ढाँचें में दफ़न हैं
रिसते हुये ताज़े-पुराने ज़ख्मों का लहू
शोषण की सड़न
ज़िन्दा जले कंजरों के विकृत शव
जातीय हिंसा से खिसकती ईंटें
भूखे पेटों में धंसता कालाजार
गोलियों से छिदे कशमीरियों के शव
पंजाब के खलिहानों से आती वह हवा
जो संग लाती है
इन्सानों के खून में डूबी
बारूद की गन्ध,
जो दिल्ली आते आते
शब्दों के बडे बडे होटलों की
बन जाती है मुख्य तरकारी।
...पर बात क्रान्ति की थी
परिवर्तन की थी- किसे मिला यह सब?
आज भी "रैंबो" है खाकी वर्दी का आदमी
सरकारी दफ़्तरों में आज भी पकती है
रिश्वतों की चाश्नी
गरीबों-अमीरों के स्कूलों में आज भी है
गहरी भयानक खाई
किसकी मिटी बेरोज़गारी?
किसे मिली उप्युक्त स्वास्थ्य सेवायें?
अब यह बात जान लो...
क्षयशील,बेजान बुनियाद पर खडी़
इस पीसा की मीनार को बचाने
गाँधी से सिंह तक की कलाबाज़िया दिखा़कर
डस लिया जाता है जनता को..
हर पाँच साला मेलों में
लेकिन साथ-साथ,
उस महामेले की भी
हो चुकी है शुरुआत,
जिसमें भाग लेगा
भारत का हर वो हाथ
जो पकड़ता है
हल, हथौडा़, कुदाल और क़लम
खो़द डालने के लिये एक-एक अवशेष
इस सड़े गले पुराने ढाँचें की बुनियाद का
जिस पर खडा़ है
इतिहास के ठगों का महल
करने शुरुआत उस सुहरी स्वतन्त्रा की
जो हर ज़िंदगी को मूल्य देगी।
रचनाकाल : 30.06.1990