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इत्मिनान है कि वो खुश हैं / रचना दीक्षित
Kavita Kosh से
चलती हूँ जब भी,
उतरती चढ़ती हूँ सीढ़ियाँ,
आती हैं अजब सी आवाज़े,
घुटनों में हड्डियों से,
कभी कड़कड़ाती, खड़खड़ाती,
कभी कंपकपाती
गुस्से में लाल पीला होते तो सुना था,
यहाँ तो नीली हो जाती हैं नसें
दबोचती हैं हड्डियाँ उन्हें जब
कभी खींचती हैं माँस,
कभी बनाती हैं माँस का लोथड़ा
दर्द से सराबोर
न कोई हँसी,
ना खिलखिलाहट,
ना लोच
कुछ भी तो नहीं रहा अब यहाँ
मनाती हूँ नसों को,
दिखाती हूँ लेप का डर
नहीं मानती वो
कभी छुप जाती हैं,
हड्डियों के नीचे, कभी माँस के नीचे
होती है सारी रात लुका छिपी,
इनकी मेरी नींद से
खुश होती हैं वो कहती हैं
कभी तुम थे, हम नहीं,
अब हम हैं तुम नहीं