भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इबारत / राकेश खंडेलवाल
Kavita Kosh से
थाम पाये नहीं बोझ इक शब्द का, रह गये ये अधर थरथराते हुए
स्वर थे असमर्थ कुछ भी नहीं कह सके, कंठ में ही रहे हिचकिचाते हुए
पढ़ने वाला मिला ही नहीं कोई भी, थीं इबारत हृदय पर लिखी जो हुई
भाव नयनों के विस्तार में खो गये तारकों की तरह झिलमिलाते हुए