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इरादे क्या हैं / सुभाष राय
Kavita Kosh से
अब तो ऐसा अक्सर होने लगा है
किसी बस्ती में, क़स्बे में, गाँव में
जँगल उग आता है अचानक
अमूमन सहज दिखने वाले चेहरे
सख़्त होने लगते हैं भेड़िये जैसे गुर्राते हुए
सभी मिलकर कोई एक शिकार चुनते हैं
उसकी मुकम्मल चीर-फाड़ करते हैं
सबको डरा हुआ देखकर
लोकतान्त्रिक हो जाते हैं
सबका हाल-चाल पूछते हैं
सवालों का स्वागत करते हैं
समाधान की बात करते हैं
मुस्कराते हैं और ख़ामोश हो जाते हैं
हर किसी को उनकी चुप्पी को ही
निदान समझने की आज़ादी रहती है
कहते हैं पूरा करेंगे सबके विकास के वादे
समझना मुश्किल है उनके इरादे