इलाहाबाद के पथ पर / सरस्वती रमेश
कभी निराला को दिखी थी वह
इलाहाबाद के पथ पर
तोड़ती पत्थर
और फ़िर उमड़ पड़ा था
कवि के अंतर का सैलाब
आज उसी इलाहाबाद के पथ पर
मुझे भी दिखाई दिए
कुछ पत्थरनुमा कठोर दृश्य
एक नंगी पीठ
उस पर पड़ती क्रूर धूप
दो अडिग हाथ
और एक हठी पहाड़
मन सोचने पर विवश था
हर युग में मिलेंगे पत्थर
हथौड़ों को चलाते दो हाथ
या पहाड़ को तोड़ते कुदाल
सब वही
सिर्फ वक्त बदला है
वह कल दुनिया से बेखबर
तमाम विपरीत परिस्थितियों में
धूप से अकेली
लोहा लिये
हथौड़े चला रही थी
और आज इसकी नंगी पीठ
सूरज के सामने तनकर खड़ी है
कल भी उसके जीवन में
सरस, कोमल और शीतल जैसा
कुछ भी न था
और आज भी इसके जीवन में
कोई कोमलता नहीं है
पर हाँ
कल निराला जैसे कवि जरूर थे
जिनकी कविताओं की मुलायमियत थी
इन निष्ठुर जीवन जीने वाले मजदूरों के संग
उनके हथौड़ों की ठकठक की पुकार से
रच जाती थीं
कई कालजई कृतियाँ
और सदा के लिये अमर हो जाती थी
एक मजदूर स्त्री
इलाहाबाद के पथ से
सीधे पहुँच जाती
करोड़ों हृदयों में
उनके अंतरमन को झकझोरती
किंतु आज इस मजदूर की नंगी पीठ है
फावड़ा चलाते इसके हाथ
सदियों से जलाती वही धूप
और इस अद्ना कवि की भावनाएँ