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इल्ज़ाम / जोशना बनर्जी आडवानी

Kavita Kosh से
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ये कान ही हैं जो शोर करते हैं
और इल्ज़ाम डाल देते हैं
बवंडर , भूकम्प और वाद्य यन्त्रो पर
ये कान बेहद शातिर हैं
बारहा सुन्न हो जाते हैं

ये जूता ही है जो चाल बदलता है
और इल्ज़ाम डाल देता है
अभिमान, शेखी और मसरूफियत पर
ये जूता बेहद बौखलाता है
इज़्ज़त की खल्वत मे सो जाता है

ये हाथ ही हैं जो ढल्ल पल्ल हैं
और इल्ज़ाम डाल देते हैं
भारीपन, तुच्छताओं और खुरदुरेपन पर
ये हाथ बेहद कालखंडी हैं
खुद को निहत्था इतिहासकार बताते हैं

ये मधुशाला ही है जो होशोहवास मे है
और इल्ज़ाम डाल देती है
गुमशुदगी, एकाकीपन और प्रेम पर
ये मधुशाला बेहद मसखरी है
मुआवज़ा देने का वादा करती है

ये आँखें ही हैं जो देख नही पाती
और इल्ज़ाम डाल देती हैं
रौशनी, चाँद और सपनों पर
ये आँखें बेहद बेरोज़गार हैं
ख्वाबों को गिरवी रख देती हैं

ये वेदना ही है जो खुश रहती है
और इल्ज़ाम डाल देती है
हृदय, चुप्पी और तन्हाई पर
ये वेदना बेहद उत्सवधर्मी है
ठहाकों पर आधिपत्य करती है

ये पीठ ही है जो लोगो को अपनाती है
और इल्ज़ाम डाल देती है
हीनता, उम्र की सीमा और लश्करों पर
ये पीठ बेहद रक्तस्रावित है
छाती को पनाह मे रखती है

ये प्रेम ही है जो उलीचा है
और इल्ज़ाम डाल देता है
दलदल, किस्मत और सादगी पर
ये प्रेम बेहद शौकीन है
अँधेरे कमरों मे भी नेगेटिव्स सा सूखता है