इशारों की परवरिश / नवीन दवे मनावत
इशारों की परवरिश है आज
दायरे हो गए हैं सीमित
व्यवस्थाओं के!
मर गई ताकत पदों की
और रह गई असभ्य हिम्मत!
जिसके सहारे केवल
धमकायी जाती है आम आदमी की
रूह को!
बस! वजुद को मिटाकर
चलते है इशारों की दुनियाँ में
जहाँ क्षणिक सुख है!
क्षणिक प्यास है!
और है क्षणिक शिव होने की भावना!
वस्तुत वह शिव नहीं!
मृगतृष्णा है आदमी के भीतर तक!
जहाँ रास्ते अनसुलझे और अनिश्चित है
इशारों की ताकत का अंदाज
शायद लगा सके
निर्लिप्त आदमी!
शायद खोज सके
सम्मानीय परिस्थिति!
इशारों की परवरिश में
व्यस्त है
संपूर्ण महकमा
गांव से शहर तक
छिपाकर हड्डियाँ और
चिल्लाकर रोटी!
इशारों की परवरिश से
हानि कुछ नहीं बस!
दब जाती है संवेदना
मर जाता है शैक्षिक परिवेश
जहाँ तड़पती है महान गुरूओं की आत्मा
रो जाती है संस्कृति
और टूट जाता है
शांति का साम्राज्य
दब जाती है पद और प्रतिष्ठा!