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इश्क़ ने दिल में जगा की तो क़ज़ा भी आई / फ़ानी बदायूनी

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इश्क़ ने दिल में जगह की तो क़ज़ा<ref>मृत्यु</ref> भी आई
दर्द दुनिया में जब आया तो दवा भी आई

दिल की हस्ती से किया इश्क़ ने आगाह मुझे
दिल जब आया तो धड़कने की सदा भी आई

सदक़े उतारेंगे, असीरान-ए-क़फ़स<ref>कैदखाने के पुराने कैदी</ref> छूटे हैं
बिजलियाँ लेके नशेमन पे घटा भी आई

हाँ! न था बाब-ए-असर<ref>असर की दरवाजा</ref> बन्द, मगर क्या कहिये
आह पहुँची थी कि दुश्मन की दुआ भी आई

आप सोचा ही किये, उस से मिलूँ या न मिलूँ
मौत मुश्ताक़ को मिट्टी में मिला भी आई

लो! मसीहा ने भी, अल्लाह ने भी याद किया
आज बीमार को हिचकी भी, क़ज़ा भी आई

देख ये जादा-ए-हस्ती<ref>ज़िन्दगी की राह</ref> है, सम्भल कर `फ़ानी’
पीछे पीछे वो दबे पावँ क़ज़ा भी आई

शब्दार्थ
<references/>