भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस क़दर भी उजाले न हों / प्रकाश बादल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस क़दर भी उजाले न हों
घर आग के निवाले न हो।

प्यासे हलक से गुज़रे न जब तलक,
नदी समन्दर के हवाले न हों।

बोल प्यार के हों ग़ज़ल की राह में,
मस्जिद न हो और शिवाले न हों।

सूरज अबके ऐसी भी धूप न बाँटे,
कि पहाड़ पर बर्फ़ के दुशाले न हों।

खुशियों की मकड़ियों का वहाँ गुज़र नहीं,
ग़मों के जिस घर में जाले न हों।

इस हमाम में सब नंगे नज़र आएंगे।
सच की ज़बान पर जो ताले न हों।