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इस ढलान पर (कविता) / प्रमोद कुमार

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अलग-अलग
छोटी-छोटी नावों से
अपने-अपने पार लगने का
समय ख़त्म हो गया,

अब तक के अपने इतिहास में
नदी सबसे तीक्ष्ण ढलान पर फिसल रही है
यहाँ निरर्थक हैं अलग-अलग चप्पू,
असमर्थ हैं अपने-अपने पतवार,

इस हत्यारे ढलान के हाहाकार में
छिन गयी अविरल निर्भयता
लुप्त हुआ
अनन्त में उतरने का कलकल आनन्द,

इस हाहाकार को चुप कराने
हे मल्लाहों !
आओ एक स्वर में गाएँ
जीवन के गीत,
जोड़ लें सभी नावें एक साथ
छोटी कर दें ढलान को ।