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इस धरती को बचाने के लिए / रेखा चमोली

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ऊर्जाए व शब्द
खो नहीं जाते शून्य में
ना ही सन्नाटे खाली होते हैं शोरों से

कहकहे , किलकारियॉ ,चीखें या कानाफूसियॉ
अपने बाद भी अपनी आवाजों की ऊर्जाएॅ
अखिल ब्रह्ममाण्ड को सौंप
निश्चिन्त सो लेती हैं देर तक

जब पहली बार रोटी बनायी गई होगी तो
क्या वो गोल ही बनी होगी ?
और चाय मीठी या जलेबी शहद भरी

वे सारी ऊर्जाएॅ जो
हमारे पूर्वजों ने खर्च कीं
छोटे बडे सारे अविष्कारों में
जिन्होंने बनाया हमारा जीवन सरल सुगम व
ये धरती रहने योग्य
चक्कर लगा रहीं हैं पष्थ्वी के साथ साथ सूर्य का
वरना इतने खून खराबे ,बारूदी विस्फाटों
भूखे मरते बच्चों ,बलात्कार की शिकार मॉओं की
आहों से निकलती आवाजों से
ये पृथ्वी कभी की खत्म ना हो जाती

चलते फिरते कभी यूॅ ही सोचा है आपने
बना रहे इस धरती का हरापन
नमी बनी रहे पेड पौधों में और ऑखों में भी
इसके लिए हम क्या कर सकते हैं ?